त्रैमासिक कृषि पत्रिका के सफलता के स्मरणीय 13 वर्ष:
कृषक वाटिका
(कृषि एवं ग्रामीण विकास की क्रान्तिकारी पहल)
का प्रथम अंक जनवरी 2009 में किया गया।
प्रधान सम्पादक
डा. योगेन्द्र प्रताप सिंह
सम्पादक मण्डल
डा. आशीष गोस्वामी - वाराणसी (पूर्वी उत्तर प्रदेश)
डा. अनिल कुमार चौरसिया - पन्तनगर (उत्तरांचल)
डा. डी.के. तिवारी - नागपुर (महाराष्ट्र)
डा. सईद अख्तर - हैदराबाद (आन्ध्र प्रदेश)
सुलक्षणा सिंह - कन्नौज (पश्चिमी उत्तर प्रदेश)
प्रतिनिधि/संवाददाता
स्वयं सिंह (लखनऊ),
डा. आर. मूर्ति चौरसिया (इलाहाबाद),
डा. रमेश चौरसिया (फैजाबाद),
शिवम (नई दिल्ली),
वेद प्रकाश (भदोही),
विवेक (औरैया)
सम्पादक पत्र-व्यवहार
डा. वाई.पी.सिंह,
प्रधान संपादक,
कृषक वाटिका हनुमान मन्दिर, नरसड़ा, सुल्तानपुर (उ.प्र.), 227806
संयुक्त निदेशक (उत्पादन)
भूपेन्द्र सिंह 'सर्जन भईया'
व्यापार प्रबंधक
नीलम सिंह
आवरण एवं सज्जा
कुँवर अनुभव विक्रम सिंह और प्रिंसेज अमृता
मूल्य एक प्रति 30 रुपये
300 रुपये वार्षिक शुल्क
540 रुपये द्विवार्षिक
750 रुपये त्रिवार्षिक
विदेशों में (हवाई डाक द्वारा)
पड़ोसी देशों में 1590 रुपये (वार्षिक)
अन्य देशों में 2190 रुपये (वार्षिक)
छात्रों, किसानों व लेखकों की वार्षिक सदस्यता शुल्क 250 रुपये मात्र होगी।
कृषक वाटिका की एजेन्सी लेने, ग्राहक बनने,विज्ञापन देने और शिकायत व सुझाव के बारे में व्यापार प्रबंधक (वितरण एवं विज्ञापन) कृषक वाटिका,निकट मंडी मोड़ अमहट रोड गोराबारीक सुलतानपुर उप्र से पत्र व्यवहार करें।
स्वामी एवं प्रकाशक : कौशलेन्द्र प्रताप सिंह बेहटा दर्पीपुर अमेठी पिन-227412 द्वारा प्रकाशित एवं विवेक प्रिन्टर्स सुलतानपुर से मुद्रित
ईमेल : kunvarkps@gmail.com
मोबाइल : 7390059968
विवरण
विज्ञापन दरें
द्वितीय एवं तृतीय आवरण पृष्ठ बहुरंगीय एक
अंक रू.15000
दो अंक रु. 25000
चार अंक रु. 45000
चतुर्थ आवरण पृष्ठ बहुरंगीय
एक अंक रू. 20000
दो अंक रु. 35000
चार अंक रु. 60000
आन्तरिक पूर्ण पृष्ठ बहुरंगीय
एक अंक रू. 5000
दो अंक रु. 9000
चार अंक रु. 10000
अर्ध पृष्ठ बहुरंगीय
एक अंक रू. 3000
दो अंक रु. 55000
चार अंक रु. 6000
चौथाई पृष्ठ बहुरंगीय 1500
एक अंक रू.1500
दो अंक रु. 25000
चार अंक रु. 3000
शुभकामना पंक्ति बहुरंगीय रू. 500
प्रधान सम्पादक की कलम से
कृषि सत्तर प्रतिशत से अधिक भारतीय जनसंख्या का मुख्य व्यवसाय है। यहाँ जलवायु सम्बन्धी विविधता के मध्य प्रायः सभी फसलों की खेती की जाती है। कृषि विकास सम्बन्धी अनेकानेक प्रयासों के मध्य सत्तर के दशक में प्रारम्भ हरित क्रान्ति (Green Revo. lution) से लेकर नब्बे के दशक की पीत क्रांति (Yellow Revolution) के कालखण्ड में भारत खाद्यान्न याचक देश की श्रेणी से निकलकर अन्न निर्यातक देशों की पंक्ति में आ खड़ा हुआ। किन्तु इस सम्मानपूर्ण स्थिति को स्थायित्व प्रदान करने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि हम अपनी बढ़ती हुई आबादी की जरूरतों के अनुरूप 4.5 प्रतिशत वार्षिक उत्पादन वृद्धि के लक्ष्य को प्राप्त कर सके। मृदा एवम् अन्य प्राकृतिक संसाधनों की गुणवत्ता में कमी, कृषि उत्पादन हेतु प्रयुक्त उपादानों की उपयोग-क्षमता में हो रहे निरंतर ह्रास, प्राकृतवास (Habitate) एवम् पर्यावरण की विकृतियाँ, ऊर्जा स्रोत संकुचल जैसी सर्वघाती समस्याओं के बीच अत्यन्त परिष्कृत एवम् उच्च स्तरीय उत्पादन प्रौद्योगिकी करके ही इन चुनौतियों का सामना किया जाना सम्भव हो सकेगा।
विश्व के किसी अन्य देश में कृषि भले ही जीविकोपार्जन के साधन के रूप में मान्य हो किन्तु भारतीय परिवेश में यह एक जीवन-पद्धति है। शताब्दियों से हमारी संस्कृति, त्यौहार, हमारी परम्पराएँ और यहाँ तक कि हमारा व्यापार भी कृषि से सम्बद्ध रहे हैं। आज भी यह उक्ति कि “भारत की आत्मा गाँवों में रहती है” प्रायः प्रयोग की जाती है। प्राचीनकाल में कृषि को सम्मानजनक एवम् गौरवपूर्ण व्यवसाय (उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी भीख निदान) माना जाता था। इस प्रकार कृषि न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था का मूलाधार है प्रत्युत यह सकल घरेलू उत्पादन एवम् सर्वाधिक जनसंख्या को जीने का आधार भी प्रदान करती है। यह अनेकानेक उद्योगों द्वारा उत्पादित पदार्थ का केवल आधार ही नहीं है, बल्कि बाढ़ नियंत्रण, पर्यावरण संरक्षण तथा विकास के साथ ही राष्ट्रीय सम्पत्ति सहअस्तित्व तथा मित्रतावर्द्धन का माध्यम भी है। कृषि से सेवायोजन के अवसरों की वृद्धि तथा आर्थिक, शैक्षिक एवम् पारिस्थितिकीय विकास के अवसर भी सुलभ होते हैं। कृषि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार तथा यातायात का प्रमुख आधार है। कृषि उत्पादन से राष्ट्र समृद्ध होता है तथा देश के सामाजिक, आर्थिक एवम् राजनी जीवन में सुधार होता है। अच्छे कृषि उत्पादन से देश में सुख-सम्पदा, सहअस्तित्व, समता एवम् भातृभावना विकसित होती है एवम् अविश्वास तथा अराजकता समाप्त होती है।
इन सब बातों पर ध्यान आकृष्ट करने के उद्देश्य से कृषक-वाटिका के प्रकाशन की शुरुआत की जा रही है। आशा करते हैं कि हमारा यह प्रयास भारत की कृषि, कृषि व्यवस्था, कृषकों के सामाजिक व आर्थिक दशा में परिवर्तन के लिये क्रान्तिकारी पहल साबित हों।
धन्यवाद।
डा योगेन्द्र प्रताप सिंह
फसलोत्पादन
गेहूँ में खरपतवार प्रबंध एवं फसल सुरक्षा
लेखक द्वय :
जय सिंह एवं डा. बी. एन. सिंह
खरपतवार प्रबन्ध (Weed Manegement) खरपतवार के पौधे न केवल फसल को दिए गए खाद एवं पानी का उपयोग करते हैं, बल्कि प्रकाश एवम वायु स्थान हेतु फसल के साथ प्रतियोगिता करके उत्पादन को घटा देते हैं। इस प्रकार की उत्पादन में होने वाली कमी पूर्णतः खरपतवार सघनता पर निर्भर करती है। उत्पादन की यह कमी विभिन्न अवस्थाओं में 10-40 प्रतिशत तक हो जाती है। प्रायः फसल के मध्य पारम्परिक रूप से बथुवा, खरथुवा, अंकरी, बनप्याजी, मटरी, हिरनखुरी, सेजी, कटइली, गजरी, कृष्णनील आदि वार्षिक खरपतवार आते हैं। कुछ खेतों में जवासा वायसुरी, कांस, दूब आदि बहुवार्षिक खरपतवार भी उगते हैं। आजकल इन खरपतवारों के अतिरिक्त गेहूँ का माँमा तथा जंगली जई के पौधे भी व्यापक रूप से उगने लगे हैं। उपरोक्त दोनों खरपतवार के पौधे गेहूँ के ही समान होते हैं और प्रारम्भ में इन्हें पहचान पाना कठिन होता है। फसल के बीच उगे खरपतवारों का समय से नियंत्रण करना अत्यन्त आवश्यक है। प्रायः इन्हें बुआई के 30-35 दिन बाद खेत से निकाल देना चाहिए। खरपतवार नियंत्रण में जितना ही विलम्ब होता है उसी के अनुपात में उत्पादन में गिरावट आती है। खरपतवारों के नियंत्रण के लिए यांत्रिक एवम् रासायनिक दोनों विधियों का प्रयोग किया जाता है। यांत्रिक विधियों में मुख्यतः खुर्पी से निराई तथा हाथ से उखाड़ने की प्रथा रही है। आजकल इस विधि में अधिक समय लगने, श्रमिकों के समय पर आवश्यकतानुसार उपलब्ध न होने तथा अधिक खर्चीली होने के कारण इसके स्थान पर रासायनिक विधि का प्रचलन बढ़ा है।
चौड़ी पत्ती वाले खरपतवार बथुआ, हिनखुरी, बनप्याजी, अंकरी आदि की रोकथाम हेतु 2,4-डी का प्रयोग किया जाता है। 2,4-डी एक शाकनाशी रसायन है जो बाजार में विभिन्न रूपों तथा अलग-अलग व्यापारिक नामों से बिकता है। यह द्रव के रूप में ब्लैडेक्स-जी तथा बीडोर (72 प्रतिशत क्रियाशील तत्व) तथा ब्लैडेक्स सी एवम बीडोन (36 प्रतिशत क्रियाशील तत्व) के रूप में मिलता है। चूर्ण (Powder) के रूप में 2,4-डी टैफासीन एवम् फरनोक्सोन (दोनों 80 प्रतिशत क्रियाशील तत्व) के रूप में उपलब्ध है। उपरोक्त
खरपतवारों को नष्ट करने के लिए टैंफासीन अथवा फरनोक्सोन की 625 ग्राम मात्रा को 400-500 लीटर पानी के साथ घोलकर बोने के 30-35 दिन बाद छिड़काव करना चाहिए। इस कार्य हेतु ब्लैडेक्स-सी को 1.4 लीटर तथा ब्लैडेक्स-जी तथा बीडोर को 700 ग्राम मात्रा प्रति हे. खेत में छिड़काव हेतु पर्याप्त हो। छिड़काव हेतु पानी की मात्रा को स्प्रेयर की क्षमता के अनुसार 900 ली./हे. तक बढ़ाया जा सकता है। खरपतवारों के नियंत्रण हेतु शाकनाशी का प्रयोग गेहूँ की फसल बोने के 45 दिन के बाद नहीं करना चाहिए। इसके दो प्रमुख कारण हैं
(1) इस अवस्था तक खरपतवार फसल का पर्याप्त नुकसान कर चुके होते हैं एवं खरपतवार के पौधे अधिक कड़े हो जाते हैं जिन्हें नष्ट करने के लिए अधिक मात्रा में शाकनाशी पदार्थों का प्रयोग करना पड़ता है।
(2) इस प्रकार विलम्ब से अधिक मात्रा में शाकनाशी के प्रयोग के कारण गेहूँ की कुछ प्रजातियों की बालियाँ ऐंठी तथा टेढ़ी निकलती हैं, जिनमें दानें कम बैठते हैं तथा टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं। इस प्रकार न केवल उत्पादन में कमी आती है, बल्कि ऐसे गेहूँ का भाव भी गिर जाता है।
गेहूँ-धान फसल-प्रणाली में गेहूँ का मामा तथा जंगली जई, जिनके पौधे गेहूँ के ही समान होते हैं, आजकल की प्रमुख समस्या है। प्रारम्भिक अवस्था में इनकी पहचान कठिन होती है। इनका प्रमुख अंतर सारणी 1 में दिया गया है। ये सामान्यतया तृणनाशी (2,4-डी) के प्रयोग से नष्ट नही हो पाते, उन्हें ट्रिब्यूनील, डोसानेक्स, आइसोप्रोटोयूरान, मेथाबेजथायोजुरान आदि का प्रयोग
करके नष्ट किया जा सकता है। इस कार्य हेतु आइसोप्रोटोयूरान का 50 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण उपलब्ध होने पर 1.5 किग्रा./हे. मात्रा तथा 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण उपलब्ध होने पर 1 किग्रा./ हे. मात्रा एवम् मेथाबेजथायोजुरान की भी उपरोक्तानुसार मात्रा को 500-700 लीटर पानी के साथ छिड़काव कराना चाहिए। इन रसायनों का मृदा-प्रयोग (Soil application) पहली सिंचाई के बाद जब फसल 5-6 पत्तियों की हो तथा खेत में पैर न धँसे, कर देने से अधिक लाभ होता है।
खरपतवार नियंत्रण हेतु अनेक दृष्टियों से रासायनिकों के प्रयोग को हतोत्साहित करना वर्तमान समय की मांग है। अतएव शाकनाशी का प्रयोग अन्तिम विकल्प के रूप में किया जाना चाहिए यद्यपि अधिक श्रम-साध्य एवम् महंगी होने के कारण मानवीय श्रम एवं यांत्रिक विधियों द्वारा खरपतवार नियंत्रण में भी कई प्रकार के बाधावरोध हैं। अतएव खेतों में खरपतवारों के घनत्व को कम करने के उद्देश्य से पूर्ण सड़ी एवं खरपतवार के बीजरहित जीवाणुनाशक खादों एवम् स्वच्छ बीजों का प्रयोग खरपतवार नियंत्रण में सहयोगी फसल-प्रणाली को अपनाना, स्टेल सीडबेड तैयार कर फसल की बुआई करने के साथ ही अन्य बचावकारी (Preventive) उपायों पर अमल करना चाहिए।
फसल सुरक्षा (Crop Protection)
गेहूँ की फसल से अधिकतम उपज प्राप्त करने के लिए उसे रोगों एवम् कीट-पतंगों से बचाना आवश्यक है। गेहूँ की फसल को कई रोग एवम् कीट नुकसान पहुँचाते हैं, जिनसे उत्पादन में भारी कमी आ जाती है। फसल में रोग-व्याधियों का प्रकोप वातावरण के अनुसार प्रतिवर्ष घटता-बढ़ता रहता है। गेहूँ के कुछ प्रमुख रोग निम्न हैं
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